आयुर्वेद दुनिया का सबसे पुराना चिकित्सा विज्ञान है. आयुर्वेद शब्द की उत्पत्ति आयु अर्थात जीवन एवम वेद अर्थात ज्ञान शब्द से हुई है। आयुर्वेद का उद्देश्य स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना एवं रोगी के रोग का निवारण है। इसकी उत्पत्ति 5000 वर्ष पूर्व मानी जाती है। माना जाता है की हमारे ऋषिओं के आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा इस विज्ञान का उदय हुआ जिन्होंने की भारत में वैदिक सभ्यता का नींव रखी। इसका अर्थ यह है कि आयुर्वेद का मूल ज्ञान एवं सिद्धांत वेदों से लिए गए हैं जो कि ज्ञान की प्राचीन पुस्तकें हैं। वेदों की संख्या है। अथर्ववेद जिसका की उत्पत्ति समय लगभग 1000 ईसापूर्व माना जाता है में सर्वप्रथम आयुर्वेद का वर्णन मिलता है। आयुर्वेद की सबसे प्रसिद्ध किताब चरक संहिता एवं सुश्रुत संहिता को माना जाता है जिसमें औषधी (मेडिसिन) एवं शल्य चिकित्सा (सर्जरी) का वर्णन मिलता है। अष्टांग हृदय में उपरोक्त दोनों पुस्तकों का समावेश है। इन तीनों पुस्तकों को साथ में मिलकर बृहत्रयी कहा जाता है अष्टांग हृदय की रचना लगभग 1000 साल पहले की गई थी। इन पुस्तकों के आधार पर आजपूरी की पूरी आयुर्वेद चिकित्सा निर्भर करती है। छठवीं शताब्दी के आसपास तिब्बत चाइना, मंगोलिया कोरिया और श्रीलंका में आयुर्वेद का प्रचार-प्रसार हुआ संभवत: बौद्ध भिक्षुओं द्वारा ये प्रचार प्रसार संभव हुआ, जो कि एक देश से दूसरे देश में ज्ञान की तलाश में घूमते थे। हालांकि यह जान अपने मूल रूप में अब इन देशों में नहीं है फिर भी आयुर्वेद का प्रभाव इन देशों की चिकित्सा पद्धति में देखा जा सकता है। आयुर्वेद पर सर्वाधिक प्रभाव सांख्य दर्शन का है जो बताता है की मूल ज्ञान अपने मूर्त रूप में एक परमात्मा में का एक हिस्सा है जो किस समय दिशा कल व आकाश के परे है, ना उसका आदि है ना किसी भी गुण या अवगुण रहित है इस परम शक्ति को स्वयं के अंदर ही महसूस किया जा सकता है। शरीर में साम्यावस्था की स्थिति में इस परम ज्ञान की प्राप्ति होती है। सांख्य दृश्यमान विश्व को प्रकृति-पुरुष मूलक मानता है। उसको दृष्टि से केवल चेतन या केवल अचेतन पदार्थ के आधार पर इस जगत् की संतोषप्रद व्याख्या नहीं की जा सकती। सांख्य जीवन या जगत् में प्राप्त होने वाले जड़ एवं चेतन, दोनों ही रूपों के मूल रूप से जड़ प्रकृति, एवं चिन्मात्र पुरुष इन दो तत्वों की सत्ता मानता है। जड़ प्रकृति सत्व, रजस एवं तमस् इन तीनों गुणों की साम्यावस्था का नाम है। सांख्य के अनुसार सारा विश्व त्रिगुणात्मक प्रकृति का वास्तविक परिणाम है।मूलत: दो तत्व मानने पर भी सांख्य परिणामिनी प्रकृति परिणामस्वरूप तेईस अवांतर तत्व भी मानता है। तत्व का अर्थ है सत्य ज्ञान इसके अनुसार प्रकृति से महत् या बुद्धि, उससे अहंकार, तामस, अहंकार से पंच तन्मात्र (शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गंध) एवं सात्विक अहंकार से ग्यारह इंद्रिय (पंच ज्ञानेंद्रिय पंच कर्मेद्रिय तथा उभयात्मक मन) और अंत में पंच तन्मात्रों से क्रमश: आकाश, वायु, तेजर, जल तथा पृथ्वी नामक पंच महाभूत, इस प्रकार तेईस तत्व क्रमश: उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार मुख्यमुख्य भेद से सांख्य दर्शन 25 तत्व मानता है। आयुर्वेद के अनुसार मानव शरीर चार मूल तत्वों से निर्मित है - दीप, धातु, मल और अग्नि आयुर्वेद में शरीर की इन बुनियादी बातों का अत्यधिक महत्व है। इन्हें हामूल सिद्धांतह या आयुर्वेदिक उपचार के बुनियादी सिद्धांतह कहा जाता है। दोप दोषों के तीन महत्वपूर्ण सिद्धांत हैं बात, पित्त और कफ, जो एक साथ अपचयी और उपचय चयापचय को विनियमित और नियंत्रित करते हैं। इन तीन दोषों का मुख्य कार्य है पूरे शरीर में पचे हुए खाद्य पदार्थों के प्रतिफल को ले जाना, जो शरीर के ऊतकों के निर्माण में मदद करता है। इन दोषों में कोई भी खराबी बीमारी का कारण बनता है। धातु जो शरीर को सम्बल देता है, उसके रूप में धातु को परिभाषित कर सकते हैं। शरीर में सात ऊतक प्रणालियां होती हैं। वे हैं रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा तथा शुक्र जो क्रमश: प्लाज्मा, रक्त, वसा ऊतक, अस्थि, अस्थि मज्जा और वीर्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। धातुएं शरीर को केवल बुनियादी पोषण प्रदान करते हैं और यह मस्तिष्क के विकास और संरचना में मदद करती है। सांख्य दृश्यमान विश्व को प्रकृति पुरुष मूलक मानता है। उसको दृष्टि से केवल चेतन या केवल अचेतन पदार्थ के आधार पर इस जगत् की संतोषप्रद व्याख्या नहीं की जा सकती। सांख्य जीवन या जगत् में प्राप्त होने वाले जड़ एवं चेतन, दोनों ही रूपों के मूल रूप से जड़ प्रकृति, एवं चिन्मात्र पुरुष इन दो तत्वों की सत्ता मानता है। जड़ प्रकृति सत्व, रजस एवं तमस् इन तीनों गुणों की साम्यावस्था का नाम है। सांख्य के अनुसार सारा विश्व त्रिगुणात्मक प्रकृति का वास्तविक परिणाम है। मूलत: दो तत्व मानने पर भी सांख्य परिणामिनी प्रकृति परिणामस्वरूप तेईस अवांतर तत्व भी मानता है। तत्व का अर्थ है सत्य ज्ञान इसके अनुसार प्रकृति से महत् या बुद्धि, उससे क्रमश: अहंकार, तामस, अहंकार से पंच तन्मात्र (शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गंध) एवं सात्विक अहंकार से ग्यारह इंद्रिय (पंच ज्ञानेंद्रिय पंच कर्मेद्रिय तथा उभयात्मक मन) और अंत में पंच तन्मात्रों से क्रमश: आकाश, वायु, तेजर, जल तथा पृथ्वी नामक पंच महाभूत, इस प्रकार तेईस तत्व क्रमश: उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार मुख्यमुख्य भेद से सांख्य दर्शन 25 तत्व मानता है। आयुर्वेद के अनुसार मानव शरीर चार मूल तत्वों से निर्मित है - दीप, धातु, मल और अग्नि आयुर्वेद में शरीर की इन बुनियादी बातों का अत्यधिक महत्व है। इन्हें हामूल सिद्धांतह या आयुर्वेदिक उपचार के बुनियादी सिद्धांतह कहा जाता है। दोप आयुर्वेद...... आयुर्वेद दुनिया का सबसे पुराना चिकित्सा विज्ञान है. आयुर्वेद शब्द की उत्पत्ति आयु अर्थात जीवन एवम वेद अर्थात ज्ञान शब्द से हुई है। आयुर्वेद का उद्देश्य स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना एवं रोगी के रोग का निवारण है। इसकी उत्पत्ति 5000 वर्ष पूर्व मानी जाती है। माना जाता है की हमारे ऋषिओं के आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा इस विज्ञान का उदय हुआ जिन्होंने की भारत में वैदिक सभ्यता का नींव रखी। इसका अर्थ यह है कि आयुर्वेद का मूल ज्ञान एवं सिद्धांत वेदों से लिए गए हैं जो कि ज्ञान की प्राचीन पुस्तकें हैं। वेदों की संख्या है। अथर्ववेद जिसका की उत्पत्ति समय लगभग 1000 ईसापूर्व माना जाता है में सर्वप्रथम आयुर्वेद का वर्णन मिलता है। आयुर्वेद की सबसे प्रसिद्ध किताब चरक संहिता एवं सुश्रुत संहिता को माना जाता है जिसमें औषधी (मेडिसिन) एवं शल्य चिकित्सा (सजेरी) का वर्णन मिलता है। अष्टांग हृदय में उपरोक्त दोनों पुस्तकों का समावेश है। इन तीनों पुस्तकों को साथ में मिलकर बृहत्रयी कहा जाता है अष्टांग हृदय की रचना लगभग 1000 साल पहले की गई थी। इन पुस्तकों के आधार पर आजपूरी की पूरी आयुर्वेद चिकित्सा निर्भर करती है। छठवीं शताब्दी के आसपास तिब्बत, चाइना मंगोलिया कोरिया और श्रीलंका में आयुर्वेद का प्रचार-प्रसार हुआ संभवत: बौद्ध भिक्षुओं द्वारा ये प्रचार प्रसार संभव हुआ, जो कि एक देश से दूसरे देश में ज्ञान की तलाश में घूमते थे। हालांकि यह जान अपने मूल रूप में अब इन देशों में नहीं है फिर भी आयुर्वेद का प्रभाव इन देशों की चिकित्सा पद्धति में देखा जा सकता है। आयुर्वेद पर सर्वाधिक प्रभाव सांख्य दर्शन का है जो बताता है की मूल ज्ञान अपने मूर्त रूप में एक परमात्मा में का एक हिस्सा है जो किस समय दिशा कल व आकाश के परे है, ना उसका आदि है ना किसी भी गुण या अवगुण रहित है इस परम शक्ति को स्वयं के अंदर ही महसूस दोषों के तीन महत्वपूर्ण सिद्धांत हैं बात, पित्त और कफ, जो एक साथ अपचयी और उपचय चयापचय को विनियमित और नियंत्रित करते हैं। इन तीन दोषों का मुख्य कार्य है पूरे शरीर में पचे हुए खाद्य पदार्थों के प्रतिफल को ले जाना, जो शरीर के ऊतकों के निर्माण में मदद करता है। इन दोषों में कोई भी खराबी बीमारी मल मल का अर्थ है अपशिष्ट उत्पाद या गंदगी मल के तीन मुख्य प्रकार हैं, जैसे मल, मूत्र और पसीना । मल मुख्य रूप से शरीर के अपशिष्ट उत्पाद हैं इसलिए व्यक्ति का उचित स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए उनका शरीर से उचित उत्सर्जन आवश्यक है। मल के दो मुख्य पहलू हैं अर्थात मल एवं कित मल शरीर के अपशिष्ट उत्पादों के बारे में है जबकि कित्त धातुओं के अपशिष्ट उत्पादों के बारे में सब कुछ है। अग्नि शरीर की चयापचय और पाचन गतिविधि के सभी प्रकार शरीर की जैविक आग की मदद से होती है जिसे अग्नि कहा जाता है। अग्नि को आहार नली यकृत तथा ऊतक कोशिकाओं में मौजूद एंजाइम के रूप में कहा जा सकता है। शारीरिक संरचना (सांचा) आयुर्वेद में जीवन की कल्पना शरीर, इंद्रियों, मन और आत्मा के संघ के रूप में है। जीवित व्यक्ति (बात पित्त और कफ, सात ऊतकों (रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि मज्जा और शुक्र) और शरीर के अपशिष्ट उत्पादों जैसे मल, मूत्र, और पसीने का एक समूह है। इस प्रकार कुल शारीरिक सांचे में देहद्रव, ऊतक और शरीर के अपशिष्ट उत्पाद शामिल हैं। इस शारीरिक सांचे और उसके घटकों की वृद्धि और क्षय भोजन के इर्द-गिर्द घूमती है जो देहद्रव, ऊतकों, और अपशिष्ट में संसाधित किया जाता है भोजन अन्दर लेने, उसके पाचन, अवशोषण, आत्मसात करने तथा चयापचय का स्वास्थ्य और रोग में एक परस्पर क्रिया होती है जो मनोवैज्ञानिक तंत्र तथा जैव आग (अग्नि) से काफी हद तक प्रभावित होती हैं। पंचमहाभूत आयुर्वेद के अनुसार मानव शरीर सहित ब्रह्मांड में सभी वस्तुएं पाँच मूल तत्वों (पंचमहाभूतों) अर्थात् पृथ्वी जल, अग्नि, वायु और निर्वात (आकाश) से बने हैं। शारीरिक सांचे व उसके हिस्सों की आवश्यकताओं तथा विभिन्न संरचनाओं व कार्यों के लिए अलग-अलग अनुपात में इन तत्वों के एक संतुलित संघनन की जरूरत होती है। शारीरिक सांचे की वृद्धि और विकास उसके पोषण यानी भोजन पर निर्भर करते हैं। बदले में भोजन उपर्युक्त पांच तत्वों से बना होता है, जो जैव अग्नि की कार्रवाई के बाद शरीर में समान तत्वों को स्थानापन्न व पोषित करते हैं। शरीर के ऊतक संरचनात्मक होते हैं जबकि देहद्रव शारीरिक अस्तित्व हैं जो पंचमहाभूतों के विभिन्न क्रम परिवर्तन तथा संयोजन से व्युत्पन्न होते हैं। स्वास्थ्य और रोग स्वास्थ्य या रोग शरीर के सांचे के विभिन्न घटकों में परस्पर संतुलन के साथ स्वयं के संतुलित या असंतुलित अवस्था होने या न होने पर निर्भर करता है। आंतरिक और बाह्य कारक दोनों प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़कर रोग को जन्म दे सकते हैं। संतुलन की यह हानि अविवेकी आहार, अवांछनीय आदतों और स्वस्थ रहने के नियमों का पालन न करने से हो सकती है। मौसमी असामान्यताएं, अनुचित व्यायाम या इंद्रियों के गलत अनुप्रयोग तथा शरीर और मन की असंगत कार्यप्रणाली परिणामस्वरूप भी मौजूदा सामान्य संतुलन में अशांति पैदा हो सकती है। उपचार में शामिल हैं आहार विनियमन जीवन की दिनचर्या और व्यवहार में सुधार, दवाओं का प्रयोग तथा पंचकर्म और रसायन चिकित्सा अपनाकर शरीर मन का संतुलन बहाल करना। निदान आयुर्वेद में निदान हमेशा रोगी में समग्र रूप से किया जाता है। चिकित्सक रोगी की आंतरिक शारीरिक विशेषताओं और मानसिक स्वभाव को सावधानी से नोट करता है। वह अन्य कारकों, जैसे प्रभावित शारीरिक ऊतक, देहद्रव, जिस स्थान पर रोग स्थित है, रोगी का प्रतिरोध और जीवन शक्ति, उसकी दैनिक दिनचर्या, आहार की आदतों, नैदानिक स्थितियों की गंभीरता, पाचन की स्थिति और उसकी व्यक्तिगत. सामाजिक आर्थिक और पर्यावरणीय स्थिति के विवरण का भी अध्ययन करता है। निदान में निम्नलिखित परीक्षण भी शामिल हैं: सामान्य शारीरिक परीक्षण 1. नाड़ी परीक्षण 2. मूत्र परीक्षण 3. मूत्रमल परीक्षण 4. मूत्रजीभ और आँखों का परीक्षण 5 मुत्रस्पर्श और श्रवण कार्यों सहित त्वचा और कान त्वचा का परीक्षण उपचार बुनियादी चिकित्सकीय दृष्टिकोण है, कि सही इलाज एकमात्र वही होता है जो स्वास्थ्य प्रदान करता है, और जो व्यक्ति हमें स्वस्थ बनाता है केवल वही सबसे अच्छा चिकित्सक है। यह आयुर्वेद के प्रमुख उद्देश्यों का सारांश दशार्ता है अर्थात स्वास्थ्य का रखरखाव और उसे बढ़ावा देना, रोग का बचाव और बीमारी का इलाज। रोग के उपचार में शामिल हैं पंचकर्म प्रक्रियाओं द्वारा शारीरिक सांचे या उसके घटकों में से किसी के भी असंतुलन के कारकों से बचना और शारीरिक संतुलन बहाल करने तथा भविष्य में रोग की पुनरावृत्ति को कम करने के लिए शरीर तंत्र को मजबूत बनाने दवाओं, उपयुक्त आहार, गतिविधि का में सक्षम होना चाहिए। उपयोग करना। आम तौर पर इलाज के उपायों में शामिल होते हैं दवाएं, विशिष्ट आहार और गतिविधियों की निर्धारित दिनचर्या । इन तीन उपायों का प्रयोग दो तरीकों से किया जाता है। उपचार के एक दृष्टिकोण में तीन उपाय रोग के मूल कारकों और रोग की विभिन्न अभिव्यक्तियों का प्रतिकार करते हैं। दूसरे दृष्टिकोण में दवा, आहार, और गतिविधि के यही तीन उपाय रोग के मूल कारकों तथा रोग प्रक्रिया के समान प्रभाव डालने पर लक्षित होते हैं। चिकित्सकीय दृष्टिकोण के इन दो प्रकारों को क्रमश: विपरीत व विपरीतार्थकारी उपचार के रूप में जाना जाता है। उपचार के सफल संचालन के लिए चार चीजें आवश्यक हैं। ये हैं 1. चिकित्सक 2. दवाई 3. नर्सिंग कार्मिक 4. रोगी महत्व के क्रम में चिकित्सक पहले आता है। उसके पास तकनीकी कौशल, वैज्ञानिक ज्ञान, पवित्रता और मानव के बारे में समझ होनी चाहिए। चिकित्सक को अपने ज्ञान का उपयोग विनम्रता, बुद्धिमत्ता के साथ और मानवता की सेवा में करना चाहिए। महत्व के क्रम में आगे आते हैं भोजन और दबाएं। ये उच्च गुणवत्ता वाले होने चाहिए, जिनका विस्तृत अनुप्रयोग हो तथा अनुमोदित प्रक्रियाओं के अनुसार उगाई व प्रसंस्कृत किया जाना चाहिए और पर्याप्त रूप से उपलब्ध होनी चाहिए। हर सफल उपचार के तीसरे घटक के रूप में नर्सिंग कर्मियों की भूमिका है जिन्हें नर्सिंग का अच्छा ज्ञान होना चाहिए. अपनी कला के कौशल को जानते हो और स्नेही, सहानुभूतिपूर्ण बुद्धिमान, साफ और स्वच्छ तथा संसाधनयुक्त होना चाहिए। चौथा घटक रोगी स्वयं होता है जिसने चिकित्सक के निर्देश का पालन करने के लिए सहयोगपूर्ण और आज्ञाकारी होना चाहिए, बीमारियों का वर्णन करने में सक्षम होना चाहिए तथा उपचार के लिए जो भी आवश्यक हो, प्रदान करने में सक्षम होना चाहिए। आयुर्वेद ने घटनाओं के चरणों और उनके घटित होने का बहुत विस्तृत विश्लेषणात्मक विवरण विकसित किया है क्योंकि रोग के कारक उसकी अंतिम अभिव्यक्ति से पहले शुरू हो जाते हैं। यह इस प्रणाली को अव्यक्त लक्षण स्पष्ट होने से बहुत पहले रोग की संभव शुरूआत जानने का एक अतिरिक्त लाभ देता है। यह चिकित्सा की इस पद्धति को अग्रिम में उचित और प्रभावी कदम उठाकर रोगजनन में आगे की प्रगति को रोकने के लिए रोग पर शुरूआत के प्रारंभिक चरण में अंकुश लगाने हेत् उपयुक्त उपचारात्मक कदम उठाने के द्वारा इसकी निवारक भूमिका को बढ़ाता है। उपचार के प्रकार रोग के उपचार को मोटे तौर पर इस तरह वगीर्कृत किया जा सकता है शोधन चिकित्सा (शुद्धिकरण उपचार) शोधन उपचार दैहिक और मानसिक रोगों के प्रेरक कारकों को हटाने पर केन्द्रित होता है। प्रक्रिया में आंतरिक और बाह्य शुद्धि शामिल हैं। सामान्य उपचारों में शामिल हैं पंचकर्म (दवाओं स उत्प्रेरित वमन, विरेचन, तेल एनीमा काढ़ा एनीमा और नाक से दवाएं देना), पूर्व पंचकर्म प्रक्रियाएं (बाहरी और आंतरिक तेलोपचार और प्रेरित पसीना ) । पंचकर्म उपचार चयापचय प्रबंधन पर केंद्रित होता है। यह चिकित्सकीय लाभ प्रदान करने के अलावा जरूरी परिशोधक प्रभाव प्रदान करता है। यह उपचार स्नायविक विकारों, पेशीय- कंकाल की बीमारी की स्थिति, कुछ नाड़ी या तंत्रिका- संवहनी स्थितियों, सांस की बीमारियों, चयापचय और अपक्षयी विकारों में विशेष रूप से उपयोगी है। शमन चिकित्सा (प्रशामक ट्रीटमेंट) शमन चिकित्सा में बिगड़े देहद्रव (दोषों) का दमन शामिल है। वह प्रक्रिया जिसके द्वारा बिगड़े देहदब अन्य देहद्रव में असंतुलन पैदा किए बिना सामान्य स्थिति में आ आता है।